Monday 22 September 2014

"पहाड़" और "मै". . .

Nature is the best Teacher. . So true is that. Recently got a chance to go for trek after ages, and truly I could feel the nature with completely different angle. Somewhat like this. . .

शुरू शुरू में तू मुझे एक नन्हे बालक की तरह लगा।
हसता, खेलता, गुदगुदाता  . . अपनी मस्ती में धूत रहता  . .
निले पिले छोटे छोटे फूलों के साथ डोलता।
हरे हरे गालीचों पे रेंगता, दौड़ता  . . किसी का भी मन मोह लेता  . .

कुछ समय बाद तू मुझे अपनी ही जवानी पे गुर्राता हुआ और मेरे सामने शर्त रखता हुआ युवक सा लगा  . .
अपने नियम खुद बनाता, और खुद ही बिगाड़ता  . .
कभी सरल कभी कठिन रास्तें रख, हर बार नयी नयी चुनौतियां मेरे सामने लाता . .
में भी जिद्दी, तेरी हर चुनौती को  स्वीकारता, और पार कर, हर बार तुझसे पूछता "अब क्या ख़याल!"
और तू अपनी ही मस्ती में मस्त होकर सिर्फ हसता, और एक चुनौती सामने रख, बस मुझे देखता . .

कभी झुककर, कभी राह मोड़ कर, कभी तेरे ही रखें पत्थरोंका सहारा लेकर . .
अब जब में तेरे सिर पें खड़ा हूँ, तब तू मुझे विशाल ह्रदय, यशपूर्ण इंसान की तरह लग रहा हें   . .
स्थिर, धीर, गंभीर रूप से मुझे अभिवादित करता . .
में भी गुरुर से उसे स्वीकार कर खुद को विशाल महसूस हूँ करता . .
तब तू मुझसे है पूछता, ए -इंसान आखिर तू किस बात पर हे इतना इतराता ?
चारों ओर नज़र डाल के तो देख, क्या महसूस कर पा रहा हैं इनकी विशालता ! . .
चारों ओर फेलें उन विशाल पहाड़ों को देख, मेरा ही मन मुझको हे टटोलता . .
नज़र मेरी झुकती देख़, तू मुझसे है कहता . .
ए- इंसान अपने आप पर नाज़ जरूर करना, गुरुर कभी ना करना . .
माना के तू बेहतर हें, पर तुझसे बेहतर भी इस दुनिया में कुछ हे ये कभी ना भूलना . .

अब जब मै उतर रहा हूँ, तुझको मै अपने साथ पा रहा हूँ . .
सोच सोच कर कदम रखना, कब कोई पत्थर धोका दे पता भी ना चले. .
ये तेरी दी हुई नसीहत अभी भी अपना रहा हूँ  . .
फिर भी कभी कभी चूंक  रहा हूँ. . फिसल रहा हूँ. . गिर रहा हूँ. . संभल रहा हुँ. .
कभी जरूरत पड़ने पर झुक रहा हूँ. . और कभी बैठकर चल रहा हूँ. . फिर से उठकर कदम मै बढ़ा रहा हूँ. .
शायद मै जीना सीख रहा हूँ. . शायद मै अपने आप को पा रहा हूँ. .


- प्राची खैरनार

Copyright © Prachi Khairnar. 

Friday 12 September 2014

अधूरी नज्मे. . .


पिछले दिनों गुलज़ार जी का कार्यक्रम देखने का सौभाग्य मिला, और यकीन मानिये  उनकी ग़ज़लें, नगमें, कवितायेँ और उनकी आवाज अभी भी कानों में गूंज रही हे. उन्हींसे से प्रेरित होकर बहोत सालोंबाद हिन्दीमे कुछ लिखने का प्रयास किया हे. वही आपके सामने रखने जा रही हूं. बेशक आपकी प्रतिक्रियाओंकी मोहताज हूँ. आशा करती हूँ आपका प्यार बना रहे.


अधूरी हे कुछ नज्मे, चलो उन्हें आज पूरी कर दूँ।
अनकही रह गयी कुछ बातें, चलो उन्हें आज कह दूँ।।

भरा पड़ा हे समंदर सारा, एक घूंट में उसे पी लूँ।
खालीपन का एहसास जरा उन्हें भी तो करा दूँ।।

भरी पड़ी हे मोतियों से ये सीपियाँ, एक - एक कर मोती में चुरा लूँ।
कुछ खो जाने का एहसास जरा उन्हें भी तो करा  दूँ।।

चाँद की रौनक बादलों से जरा ढक दूँ।
यकायक हुए अँधेरे का एहसास जरा उन्हें भी तो करा दूँ।।

पत्ता- पत्ता बूटा-बूटा हर एक शाख से में समेट  लूँ।
भरी मेहफिल में कुछ खो जाने का एहसास जरा उन्हें भी तो करा दूँ।।

सिर्फ इस ख्याल से हवा ने अपना रुख बदला है।
ए - खुदा, तेरी इनायत से मन हर उस दौर से गुजरा है।।



- प्राची खैरनार

Copyright © Prachi Khairnar.