Monday 10 September 2018

मैं भी कुछ हूं

उन तमाम महिलाओं के लिए जो कही न कही आज भी लड़ रही है अपना अस्तित्व, अपना वजूद ढूंढने के लिए, अपने सपनों को जीने के लिए.

के मैं भी कुछ हूं, ये मुझे खुद को है याद दिलाना
खुदसे जो वादे किये है अनगिनत, उन्हें मुझे ही है निभाना

पर शायद मन में कुछ ठहराव सा है
बरसों चली आ रही परम्पराओंका, कुछ बोझ सा है
आजभी कही कोई खिचाव सा है
उस कंगन, पायल या बिंदी के घेराव में बसी एक ज़िन्दगी का  है
मेरे औरत होने के दायरों का, लकीरों का है

एक माँ, एक बेहेन, एक पत्नी का धर्म तो निभाना है लेकिन
मेरे औरत होने के धर्मको निभाना अभी बाकी है
मेरे खुद के होने के एहसास को पहचानना अभी बाकी है
खुद से किये हुए वादों को जानना अभी बाकी है.

कुछ है ऐसा, जिसका संघर्ष अभी बाकी है
एक माँ, एक बहन और हर उस औरत को
ये एहसास दिलाना जरूरी है
के तू भी कुछ है, ये तूने खुदने मानना जरूरी है

तभी शायद कंधे से कन्धा मिलाने का असली मतलब तू समझ पाए
और अपने आपमें बसी उस औरत को और  हर उस इंसान को ये जता पाए
के तू भी कुछ है. . हाँ, तू भी कुछ है



शुक्रिया. .

प्राची खैरनार.



Copyright © Prachi Khairnar.

1 comment:

  1. Layers and layers of constructs we impose on ourselves - 'Maya'. Who are "we"? The quest for this question will take us on the journey of attaining our highest potential. Thanks for your thoughts.

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