शुरू शुरू में तू मुझे एक नन्हे बालक की तरह लगा।
हसता, खेलता, गुदगुदाता . . अपनी मस्ती में धूत रहता . .
निले पिले छोटे छोटे फूलों के साथ डोलता।
हरे हरे गालीचों पे रेंगता, दौड़ता . . किसी का भी मन मोह लेता . .
कुछ समय बाद तू मुझे अपनी ही जवानी पे गुर्राता हुआ और मेरे सामने शर्त रखता हुआ युवक सा लगा . .
अपने नियम खुद बनाता, और खुद ही बिगाड़ता . .
कभी सरल कभी कठिन रास्तें रख, हर बार नयी नयी चुनौतियां मेरे सामने लाता . .
में भी जिद्दी, तेरी हर चुनौती को स्वीकारता, और पार कर, हर बार तुझसे पूछता "अब क्या ख़याल!"
और तू अपनी ही मस्ती में मस्त होकर सिर्फ हसता, और एक चुनौती सामने रख, बस मुझे देखता . .
कभी झुककर, कभी राह मोड़ कर, कभी तेरे ही रखें पत्थरोंका सहारा लेकर . .
अब जब में तेरे सिर पें खड़ा हूँ, तब तू मुझे विशाल ह्रदय, यशपूर्ण इंसान की तरह लग रहा हें . .
स्थिर, धीर, गंभीर रूप से मुझे अभिवादित करता . .
में भी गुरुर से उसे स्वीकार कर खुद को विशाल महसूस हूँ करता . .
तब तू मुझसे है पूछता, ए -इंसान आखिर तू किस बात पर हे इतना इतराता ?
चारों ओर नज़र डाल के तो देख, क्या महसूस कर पा रहा हैं इनकी विशालता ! . .
चारों ओर फेलें उन विशाल पहाड़ों को देख, मेरा ही मन मुझको हे टटोलता . .
नज़र मेरी झुकती देख़, तू मुझसे है कहता . .
ए- इंसान अपने आप पर नाज़ जरूर करना, गुरुर कभी ना करना . .
माना के तू बेहतर हें, पर तुझसे बेहतर भी इस दुनिया में कुछ हे ये कभी ना भूलना . .
अब जब मै उतर रहा हूँ, तुझको मै अपने साथ पा रहा हूँ . .
सोच सोच कर कदम रखना, कब कोई पत्थर धोका दे पता भी ना चले. .
ये तेरी दी हुई नसीहत अभी भी अपना रहा हूँ . .
फिर भी कभी कभी चूंक रहा हूँ. . फिसल रहा हूँ. . गिर रहा हूँ. . संभल रहा हुँ. .
कभी जरूरत पड़ने पर झुक रहा हूँ. . और कभी बैठकर चल रहा हूँ. . फिर से उठकर कदम मै बढ़ा रहा हूँ. .
शायद मै जीना सीख रहा हूँ. . शायद मै अपने आप को पा रहा हूँ. .
- प्राची खैरनार
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