Saturday 18 August 2018

कश्ती

नमश्कार दोस्तों!! दोस्तों, हम सभी ने बचपन में कागज़ की कश्ती बनाके तालाब में, बारिश के पानी से बने छोटे से गड्ढे में,  नदी, झरनों में या समंदर में छोड़ी तो जरुर होगी. बस्स, मैंने भी ऐसी ही एक कश्ती छोड़ी थी समंदर में, अब वो कश्ती लौट आयी है, बड़ी हो गयी है वो कुछ अलग सी भी लग रही है यूँ माने तो जैसे कई layers चढ़े हो उसके ऊपर. पर उसने मुझे और मैंने उसे पहचान लिया है. उससे एक अरसे बाद हुई मुलाक़ात बयाँ कर रही हूँ.


जाने कौन दिशा हो कर आयी है
ना जाने कितने देश घूम आयी है
वो जो छोड़ दी थी कभी नाम पता लिख के
मेरी ये कश्ती एक अरसे बाद लौट आई है

पहले से थोड़ी अलग लग रही है अब और बड़ी भी
कुछ जंग सा चढ गया है मगर, शायद ऐसे कुछ मौसमों से वो गुजर आयी है
कही कोई खरोच के निशाँ भी है, जैसे किसी से बचते बचाते वो निकल आयी है
जितनी उजली हुई उतनीही कुछ थकी सी लग रही है
तजुर्बों का वजन कुछ भारी हो गया लगता है; ख्वाहिशों और उम्मीदों पर

जाने कौन दिशा हो कर आयी है
लगता है जैसे बहोत कुछ देख आयी है

अब जब हम दोनों फुर्सत से गुफ्तगू कर रहे है इस समंदर के किनारे
चाँद की मद्धम सी रौशनी तलें, जाने कितनी छटाएं झलक रही है बात ही बात में
कुछ कुछ सुलझी हुई सी कुछ कुछ उलझी हुई सी
कुछ खुशनुमा भी कुछ उदास भी

बहोत कुछ ये देख समझ आयी है
उलझनों में भी अजीब सी सुलझन इसने पायी है
जाने कौन दिशा हो कर आयी है
मेरी ये कश्ती एक अरसे बाद लौट आई है


शुक्रिया. .

प्राची खैरनार.





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