Friday 12 September 2014

अधूरी नज्मे. . .


पिछले दिनों गुलज़ार जी का कार्यक्रम देखने का सौभाग्य मिला, और यकीन मानिये  उनकी ग़ज़लें, नगमें, कवितायेँ और उनकी आवाज अभी भी कानों में गूंज रही हे. उन्हींसे से प्रेरित होकर बहोत सालोंबाद हिन्दीमे कुछ लिखने का प्रयास किया हे. वही आपके सामने रखने जा रही हूं. बेशक आपकी प्रतिक्रियाओंकी मोहताज हूँ. आशा करती हूँ आपका प्यार बना रहे.


अधूरी हे कुछ नज्मे, चलो उन्हें आज पूरी कर दूँ।
अनकही रह गयी कुछ बातें, चलो उन्हें आज कह दूँ।।

भरा पड़ा हे समंदर सारा, एक घूंट में उसे पी लूँ।
खालीपन का एहसास जरा उन्हें भी तो करा दूँ।।

भरी पड़ी हे मोतियों से ये सीपियाँ, एक - एक कर मोती में चुरा लूँ।
कुछ खो जाने का एहसास जरा उन्हें भी तो करा  दूँ।।

चाँद की रौनक बादलों से जरा ढक दूँ।
यकायक हुए अँधेरे का एहसास जरा उन्हें भी तो करा दूँ।।

पत्ता- पत्ता बूटा-बूटा हर एक शाख से में समेट  लूँ।
भरी मेहफिल में कुछ खो जाने का एहसास जरा उन्हें भी तो करा दूँ।।

सिर्फ इस ख्याल से हवा ने अपना रुख बदला है।
ए - खुदा, तेरी इनायत से मन हर उस दौर से गुजरा है।।



- प्राची खैरनार

Copyright © Prachi Khairnar. 

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