Saturday 19 January 2019

देव माझा मुका झाला!!

ओझे माझे मणभर
घेऊन मी पाठीवर
उभी तुझ्या दारी मूक
साधाया क्षण अचूक

गर्दीतून गर्दीतच
रांगेतून रांगेतच
फुल गंध हार तुरे
तुला मी दिसले कारे?

ना जोडीले हे कर
ना टेकविले ते सर
ओझे तसेच राहिले
मागे तसेच वाहिले

भरला गाभारा रिता
भक्तांमध्ये तू एकटा
देव माझा मुका झाला
क्षण साधाया तो मुकला

धन्यवाद!

- प्राची खैरनार.

Copyright © Prachi Khairnar.

Friday 14 December 2018

एक चेहरे पे कई चेहरे देखे!!

एक चेहरे पे कई चेहरे देखे. .
यहां सायें भी रंग बदलते देखे
चलती फिरती लाशों के बीच,
कई कुचले ख़्वाब देखे
कई हजार अरमां उल्टे पांव जाते देखे. .

एक चेहरे पे कई चेहरे देखे. .
यहां रंग बदलते दिल भी देखे
रुख हवा का देख रुख बदलते रूप देखे
इंसान का रूप लिए कई सारे गिरगिट देखे. .

एक चेहरे पे कई चेहरे देखे. .
सामने सामने हसते बोलते इंसान देखे
पीछे पीछे खंजर लिए वही सारे हैवान देखे
बेमौत मारे गए जज़्बात और भरोसे देखे. .

एक चेहरे पे कई चेहरे देखे. .


धन्यवाद!

प्राची खैरनार.

Copyright © Prachi Khairnar.

Sunday 2 December 2018

बुद्धिबळ


जो तो आप आपल्या सोयीने चाल खेळतो
नियमांची आणि तत्वांची अहो पर्वा इथे कोण करतो?
भावना, संवेदना सगळे पुस्तकी शब्द
पैसा याने मिळत नाही मग याला हो कोण पुसतो?

आयुष्याला म्हणे संबोधतात बुद्धिबळाचा खेळ
अहो पण त्यात ही आहेच की नियम आणि तत्त्वांचा मेळ
घोडं अडीच घरातच अडतं, उंट फक्त तिरकच चालतं,
हत्ती आपला सरळ गपगुमान, हवी तितकी घरं चालण्यातच याची शान

हो हो आहे या खेळात माणसंही. . .  प्यादे, वजीर, राणी आणि राजा
हुद्द्याप्रमाणे ठरली जागा आणि आपापल्या जागी उभी ठाकली प्रजा
सरसकट इथे फक्त काळे पांढरे असे दोनच गट
काळया पांढऱ्या चौकोनांच्या विश्वात उभा आमचा पट

समोरच्याच्या मनीचा ठाव इथे देखील लागत नाही
तरी एक मात्र बरं इथे मागून वार होत नाहीत
तर जिंकण वा हरणं हे ज्याच्या त्याच्या बुद्धीवर
डाव जिंकला कसा हे चाल खेळल्या चालीवर

त्यामुळे इथे सोय पाहून चालत नाही
नियम तत्व पळल्याखेरिज तुमचा निभाव लागत नाही
खऱ्या खुऱ्या आयुष्यातही येईल का खेळता बुद्धिबळ?
स्वतःच्या बुद्धीवर जगण्यास मिळेल का प्रत्येकाला बळ?


धन्यवाद!

प्राची खैरनार.

Copyright © Prachi Khairnar.


Sunday 21 October 2018

मोकळा जीव. . .


मोकळ्या श्वासांपरी जरी मोकळा तो जीव हा
मोकळ्या श्र्वासांमध्येही, लडखडे तो जीव हा. . .

मोकळ्या शब्दांतही, अडखळे तो जीव हा
मोकळ्या बंधनातही, धडपडे तो जीव हा. .

मोकळ्या भावनांतही, गुंततो तो जीव हा
मोकळ्या स्पर्शातही, अवघडे तो जीव हा. . .

मोकळ्याश्या या जगात, बंधतो तो जीव हा
मखमली वाटांवरीही, काट्यात रुततो जीव हा. . .

मोकळ्या श्वासांपरी जरी मोकळा तो जीव हा
मोकळ्या श्र्वासांमध्येही, लडखडे तो जीव हा. . .



धन्यवाद!

प्राची खैरनार.

Copyright © Prachi Khairnar.

Tuesday 25 September 2018

सिगरेट

सिगरेट पिनेकी आदत नहीं मुझे
फिर भी गलेमे खराशें है एक अरसे से  
ज़िन्दगी. .  तेरे कश कुछ ज्यादा ही लगा लिए शायद 

धुवां धुवां सी है अब तू
जैसे कोहरे में ले जा रही कही
कुछ कश तूने फेकें मुझपे
कुछ ग़म मैं फूँक रही हूँ कही

है कुछ ऐसा कश मैं लगाती हूँ जलती मगर तू है
दर्द मैं निगलती हूँ कतरा कतरा ख़त्म होती मगर तू है
हर एक कश के बाद जो हलके से झटक दू तुझको तो
दो चार जलते अरमान ख़ाक हो ही जाते है
अरमान ही तो थे यहाँ तो ऐ ज़िन्दगी तेरे साथ मेरे लम्हें भी तो जल रहे है

हर एक लम्हा, हर एक अरमान धुवां हो गया कही
कोहरे में ढूंढ रही हूँ उन्हें, के इस उम्मीद में
कही कोइ बन के ओस बैठा हो मेरे इंतज़ार में
के मैं आऊं और समा लू फिर से उसे अपने आप में


धन्यवाद!

प्राची खैरनार.


Copyright © Prachi Khairnar.


Monday 10 September 2018

मैं भी कुछ हूं

उन तमाम महिलाओं के लिए जो कही न कही आज भी लड़ रही है अपना अस्तित्व, अपना वजूद ढूंढने के लिए, अपने सपनों को जीने के लिए.

के मैं भी कुछ हूं, ये मुझे खुद को है याद दिलाना
खुदसे जो वादे किये है अनगिनत, उन्हें मुझे ही है निभाना

पर शायद मन में कुछ ठहराव सा है
बरसों चली आ रही परम्पराओंका, कुछ बोझ सा है
आजभी कही कोई खिचाव सा है
उस कंगन, पायल या बिंदी के घेराव में बसी एक ज़िन्दगी का  है
मेरे औरत होने के दायरों का, लकीरों का है

एक माँ, एक बेहेन, एक पत्नी का धर्म तो निभाना है लेकिन
मेरे औरत होने के धर्मको निभाना अभी बाकी है
मेरे खुद के होने के एहसास को पहचानना अभी बाकी है
खुद से किये हुए वादों को जानना अभी बाकी है.

कुछ है ऐसा, जिसका संघर्ष अभी बाकी है
एक माँ, एक बहन और हर उस औरत को
ये एहसास दिलाना जरूरी है
के तू भी कुछ है, ये तूने खुदने मानना जरूरी है

तभी शायद कंधे से कन्धा मिलाने का असली मतलब तू समझ पाए
और अपने आपमें बसी उस औरत को और  हर उस इंसान को ये जता पाए
के तू भी कुछ है. . हाँ, तू भी कुछ है



शुक्रिया. .

प्राची खैरनार.



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Thursday 23 August 2018

कैदी "मैं"



क्यों ना "मैं" ही से शुरुआत करें,
क्यों ना "मैं" ही को खोजें पहले
जो तू कह रहा है के खो गया है कही इस भीड़ में. . .

ये "मैं" कौन है? आखिर दिखता कैसा है?
क्या वो शक्ल सूरत में बिलकुल तेरे जैसा है?
शक्ल सूरत है भी उसकी या नहीं
या फिर दिखाता तू जैसे, ये दिखता वैसा ही है

क्या इस "मैं" को नाम पहचान भी है कोई
या फिर जिस नाम से मिलाता है तू सबको बस ये वही है?
ये "मैं" जो तू केह रहा है की वो भीड़ में खो गया है कही,
मुझे तो शक है, के तूने ही उसे कही कैद कर रखा है

एक ऐसी जगह जहासे दूर दूर तक किसी की आवाज़ ना सुनाई दे
दरवाज़ा लाख खोलना चाहे कोई, तालें की चाबी तक तू उसे पोहोचनें ना दे

के इस "मैं" को तुझे छुड़ाना ही होगा
वो "मैं" जो एक आज़ाद पंछी की तरह उड़ना चाहता है
वो "मैं" जो दायरे के बाहर जाकर कुछ सोचना चाहता है
वो "मैं" जो तेरे ख़्वाबों पर आज भी यकीन करता है

उस "मैं" से तुझे मिलना ही होगा,
भीड़ में जो जी रहा है तू अपनी जिंदगी
उसमें खो कर तुझे "मैं" को पाना ही होगा

उस "मैं" से गर मिल पाया तू, तो ज़िन्दगी जिया तू
न मिल पाया गर उस "मैं" से कभी, तो क्या जिंदगी जिया तू. . .


शुक्रिया. .

प्राची खैरनार.





Copyright © Prachi Khairnar.






Saturday 18 August 2018

कश्ती

नमश्कार दोस्तों!! दोस्तों, हम सभी ने बचपन में कागज़ की कश्ती बनाके तालाब में, बारिश के पानी से बने छोटे से गड्ढे में,  नदी, झरनों में या समंदर में छोड़ी तो जरुर होगी. बस्स, मैंने भी ऐसी ही एक कश्ती छोड़ी थी समंदर में, अब वो कश्ती लौट आयी है, बड़ी हो गयी है वो कुछ अलग सी भी लग रही है यूँ माने तो जैसे कई layers चढ़े हो उसके ऊपर. पर उसने मुझे और मैंने उसे पहचान लिया है. उससे एक अरसे बाद हुई मुलाक़ात बयाँ कर रही हूँ.


जाने कौन दिशा हो कर आयी है
ना जाने कितने देश घूम आयी है
वो जो छोड़ दी थी कभी नाम पता लिख के
मेरी ये कश्ती एक अरसे बाद लौट आई है

पहले से थोड़ी अलग लग रही है अब और बड़ी भी
कुछ जंग सा चढ गया है मगर, शायद ऐसे कुछ मौसमों से वो गुजर आयी है
कही कोई खरोच के निशाँ भी है, जैसे किसी से बचते बचाते वो निकल आयी है
जितनी उजली हुई उतनीही कुछ थकी सी लग रही है
तजुर्बों का वजन कुछ भारी हो गया लगता है; ख्वाहिशों और उम्मीदों पर

जाने कौन दिशा हो कर आयी है
लगता है जैसे बहोत कुछ देख आयी है

अब जब हम दोनों फुर्सत से गुफ्तगू कर रहे है इस समंदर के किनारे
चाँद की मद्धम सी रौशनी तलें, जाने कितनी छटाएं झलक रही है बात ही बात में
कुछ कुछ सुलझी हुई सी कुछ कुछ उलझी हुई सी
कुछ खुशनुमा भी कुछ उदास भी

बहोत कुछ ये देख समझ आयी है
उलझनों में भी अजीब सी सुलझन इसने पायी है
जाने कौन दिशा हो कर आयी है
मेरी ये कश्ती एक अरसे बाद लौट आई है


शुक्रिया. .

प्राची खैरनार.





Copyright © Prachi Khairnar.

Tuesday 14 August 2018

इक छोटासा टुकड़ा आसमान का

नमश्कार दोस्तों, डायरी के पन्ने पलटते समय ये छोटासा टुकड़ा हाथ लग गया आसमान का, जो चुपकेसे तोड़ लिया था कभी. पर समय के साथ so called practical life में कुछ भूल सी गयी थी.  अब जब याद आ गयी है उसकी तो मालूम हो रहा है वो कही छुप कर बैठा है और साथ साथ मेरे ऐसे ही कुछ और साथियों को भी ले चला है. आपको दिख जाए तो इत्तेलाह जरूर कीजियेगा, अब जब खोने का एहसास हुआ है उन्हें तो एहमियत पता चल रही है उनकी. साथ निभाने का वादा जरूर करुँगी अगर मिल जाए ये साथी मेरे.  देखें. . .

इक छोटासा टुकड़ा आसमान का
नजर बचाके सबकी तोड़ लिया था कभी चुपकेसे
पता नहीं कहा छुपकर बैठा है

परेशान इसलिए भी हूँ
के कम्बख़त ने मेरी ख्वाहिशों को भी अपनी टीम में शामिल कर लिया है
और उनको ढूंढते राह चलते पता नहीं
शायद मेरे ख्वाबों ने भी उन्हें जॉइन कर लिया है कही

आपको दिख जाएँ अगर तो नजर रखियेगा जरा
आसमान कुछ हलके भूरे रंगो के कपड़ें पहने हुए है
ख्वाहिशें बड़ी मासूम और नन्ही है मेरी
रंगबिरंगी तितलियों जैसी
ख्वाबों का कद् ऊँचा है मेरे ,
रंगो का तो पता नहीं पर बड़ी सी चादर लपेटें हुए घूमता है
जाने क्या क्या समेटे हुए रहता है.

आपको दिख जाए अगर तो खबर कीजिएगा जरूर
एक छोटासा टुकड़ा है आसमान का
पता नहीं कहा छुप कर बैठा है



शुक्रिया. .


प्राची खैरनार.



Copyright © Prachi Khairnar.

Tuesday 7 August 2018

कुछ हसीं लम्हें . . . फिर से




बहोत दिनों बाद कुछ हस पड़ा ये दिल है आज
कुछ हसीं लम्हों ने फिर से भर दिया ये दामन है आज

कुछ अनछूएसे तार छेड़ दिए यूँ किसी ने आज
बिखरे से सुरों में मिल रहा अलग सुर है आज

चाँद तो आज भी बादलों से तक रहा है लेकिन
कई अनगिनत सितारों ने भर दिया ये मेरा आँगन है आज

बहोत दिनों बाद कुछ हस पड़ा ये दिल है आज
कुछ हसीं लम्हों को फिर से जी भर के जी लिया है आज

कैसे बयाँ करें खुद से हुई मुलाकात का मज़ा
खुद को खो कर शायद खुद को पा लिया है आज

यूँ तो कई बार खुद से रूठने मनाने के सिलसिले हुए मगर
खुद से ही खुद को जीत लेने के एहसास को जिया है आज

यूँ तोह एहसास एक जज्बा है फिर भी
उसी एहसास को जुबाँ मिल गयी है आज

बहोत दिनों बाद कुछ हस पड़ा ये दिल है आज
कुछ हसीं लम्हों ने फिर से भर दिया ये दामन है आज


धन्यवाद!


प्राची खैरनार.



Copyright © Prachi Khairnar.